आषाढ़ महीना के पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा अथवा गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
पुराणों व शास्त्रों में
इस दिन का काफी महत्व है। सो शिष्य अपने गुरु के निवास अथवा आश्रम पर पहुंचकर श्रद्धा के साथ गुरु का दर्शन व वंदन करते हैं। यह पर्व कृष्ण द्वैपायन यानि वेद व्यास की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
द्वापर युग से शुरू हुई परंपरा
द्वापर युग के अंत व कलियुग के शुरू में आज से लगभग 6500 वर्ष पूर्व आषाढ़ पूर्णिमा को कृष्ण द्वैपायन (वेद व्यास) के रूप में भगवान श्री नारायण ने यमुना नदी के द्वीप पर अवतार लिया था। जिन्होंने अठारह पुराण, एक लाख श्लोक वाला महाभारत व ब्रह्मा-सूत्र की रचना के साथ एक वेद को चार वेदों में विस्तारित कर अज्ञानी संसार को ज्ञान से प्रकाशित किया था। जिससे उन्हें संसार का गुरु मानते हैं। इसी कारण इस तिथि को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।
किसे बनाएं दीक्षा-गुरु
मनु स्मृति के अनुसार वैसा व्यक्ति ही गुरु बनने के काबिल है, जो दस गुणों से संपन्न हो। जिनमें क्षमा, दया, तपस्या, पवित्रता, यम, नियम, दान, सत्य, विद्या व संतोष आदि गुण हों वैसा ही व्यक्ति गुरु बनने व शिष्य बनाने का अधिकारी है। जबकि श्रीमद्भागवत महापुराण में उक्त गुणों से युक्त केवल ब्राह्माण वर्ण के लोगों को ही दीक्षा-गुरु बनने का अधिकारी बताया गया है। लेकिन शिक्षा-गुरु किसी भी वर्ण का व्यक्ति हो सकता है।
आध्यात्मिक चेतना को दीक्षा जरूरी
आध्यात्मिक चेतना व आत्म उत्थान के लिए किसी योग्य गुरु से दीक्षा मंत्र की दीक्षा लेकर शिष्य बनना जरूरी होता है। क्योंकि स्वार्थ का परित्याग कर संपूर्ण मानव समाज को सुखी बनाते हुए ब्रह्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त गुरु द्वारा किया जाता है।
सबसे बड़ी गुरु भक्ति
ज्योतिषाचार्य पं. शिव शंकर ठाकुर ने कहा कि गुरु कृपा से संसार के समस्त सुख, ऐश्वर्य व स्वर्ग की संपदा प्राप्त हो सकती है, जो बड़े-से-बड़े योगियों को भी नसीब नहीं होता। संपूर्ण भक्ति शास्त्रों में गुरु भक्ति से बढ़कर दूसरी कोई भक्ति नहीं है। सो गुरु पूजन बिना सभी धर्म, कर्म व पूजा-पाठ व्यर्थ है।
दीक्षा-गुरु की करें आराधना
पं.ठाकुर के मुताबिक सुबह नित्य क्रिया से निवृत्त हो गुरु दर्शन व पूजन कर उनका आशीर्वाद लेना चाहिए। वैदिक विधि के साथ कुश के आसन पर बैठकर गुरु की देवताओं के समान पूजा करनी चाहिए। फिर दीक्षा मंत्र का तुलसी माला से जाप करने के बाद हवन के उपरांत अन्न, द्रव्य व सद्ग्रंथ का दान करना चाहिए।
इस दिन का काफी महत्व है। सो शिष्य अपने गुरु के निवास अथवा आश्रम पर पहुंचकर श्रद्धा के साथ गुरु का दर्शन व वंदन करते हैं। यह पर्व कृष्ण द्वैपायन यानि वेद व्यास की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
द्वापर युग से शुरू हुई परंपरा
द्वापर युग के अंत व कलियुग के शुरू में आज से लगभग 6500 वर्ष पूर्व आषाढ़ पूर्णिमा को कृष्ण द्वैपायन (वेद व्यास) के रूप में भगवान श्री नारायण ने यमुना नदी के द्वीप पर अवतार लिया था। जिन्होंने अठारह पुराण, एक लाख श्लोक वाला महाभारत व ब्रह्मा-सूत्र की रचना के साथ एक वेद को चार वेदों में विस्तारित कर अज्ञानी संसार को ज्ञान से प्रकाशित किया था। जिससे उन्हें संसार का गुरु मानते हैं। इसी कारण इस तिथि को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।
किसे बनाएं दीक्षा-गुरु
मनु स्मृति के अनुसार वैसा व्यक्ति ही गुरु बनने के काबिल है, जो दस गुणों से संपन्न हो। जिनमें क्षमा, दया, तपस्या, पवित्रता, यम, नियम, दान, सत्य, विद्या व संतोष आदि गुण हों वैसा ही व्यक्ति गुरु बनने व शिष्य बनाने का अधिकारी है। जबकि श्रीमद्भागवत महापुराण में उक्त गुणों से युक्त केवल ब्राह्माण वर्ण के लोगों को ही दीक्षा-गुरु बनने का अधिकारी बताया गया है। लेकिन शिक्षा-गुरु किसी भी वर्ण का व्यक्ति हो सकता है।
आध्यात्मिक चेतना को दीक्षा जरूरी
आध्यात्मिक चेतना व आत्म उत्थान के लिए किसी योग्य गुरु से दीक्षा मंत्र की दीक्षा लेकर शिष्य बनना जरूरी होता है। क्योंकि स्वार्थ का परित्याग कर संपूर्ण मानव समाज को सुखी बनाते हुए ब्रह्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त गुरु द्वारा किया जाता है।
सबसे बड़ी गुरु भक्ति
ज्योतिषाचार्य पं. शिव शंकर ठाकुर ने कहा कि गुरु कृपा से संसार के समस्त सुख, ऐश्वर्य व स्वर्ग की संपदा प्राप्त हो सकती है, जो बड़े-से-बड़े योगियों को भी नसीब नहीं होता। संपूर्ण भक्ति शास्त्रों में गुरु भक्ति से बढ़कर दूसरी कोई भक्ति नहीं है। सो गुरु पूजन बिना सभी धर्म, कर्म व पूजा-पाठ व्यर्थ है।
दीक्षा-गुरु की करें आराधना
पं.ठाकुर के मुताबिक सुबह नित्य क्रिया से निवृत्त हो गुरु दर्शन व पूजन कर उनका आशीर्वाद लेना चाहिए। वैदिक विधि के साथ कुश के आसन पर बैठकर गुरु की देवताओं के समान पूजा करनी चाहिए। फिर दीक्षा मंत्र का तुलसी माला से जाप करने के बाद हवन के उपरांत अन्न, द्रव्य व सद्ग्रंथ का दान करना चाहिए।