ताजा समाचार :

6/Posts/ticker posts

महर्षि मेहीं दास जी महाराज की 139वीं जयंती पर हुए कई कार्यक्रम, उमड़े श्रद्धालु


महर्षि मेहीं दास जी महाराज की 139वीं जयंती पर हुए कई कार्यक्रम, उमड़े श्रद्धालु
नव-बिहार समाचार, भागलपुर। अखिल भारतीय संतमत सत्संग महासभा की ओर से स्थानीय कुप्पाघाट आश्रम में गुरुवार को महर्षि मेंही परमहंस की 139वीं जयंती मनाई गई। सुबह पांच बजे आश्रम परिसर से बैंड-बाजे, घोड़े के साथ शोभायात्रा निकाली गई। जो कचहरी चौक, घंटाघर, खलीफाबाग, स्टेशन चौक होते हुए आदमपुर, खंजरपुर, मायागंज होते हुए पुनः आश्रम परिसर पहुंची। इस दौरान साधु व श्रद्धालु अपने हाथों में संत का ध्वज लेकर महर्षि के जीवन चरित्र से जुड़ी बातों व नारों का उद्घोष कर जयकारा लगा रहे थे। शोभायात्रा में सबसे आगे मेंहीं परमहंस की झांकी निकाली गई थी। इधर सत्संग के गीतों पर सभी झूमते नजर आ रहे थे। 
वहीं कुप्पाघाट आश्रम में सुबह 6 बजे स्तुति पाठ व आरती हुई। फिर 8 बजे आश्रम परिसर के संत मेंहीं सद्गुरु निवास में पुष्पांजलि कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इसमें वरिष्ठों व अन्य महात्माओं ने एक-एक कर परमहंस की तस्वीर पर माल्यार्पण किया। सुबह के 11 बजे से भंडारा हुआ। इसके बाद जयंती का मुख्य कार्यक्रम भजन-कीर्तन शुरू हुआ। फिर दोपहर 2 बजे से स्तुति, विनती व ग्रंथ का पाठ हुआ। महर्षि हरिनंदन महाराज ने महर्षि मेंही परमहंस के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि महर्षि मेंहीं साधना की उच्चता को प्राप्त करने में वर्षों गुफा में तपस्या किये। महर्षि बाबा सभी धर्मों का सम्मान करते हुए हमेशा कल्याण का संदेश देते थे। 
गुरुसेवी भागीरथ दास जी महाराज ने अपने प्रवचन में कहा कि संतों का जीवन परोपकार के लिए होता है।
संत वहीं होते हैं जो कष्ट को झेलते हुए दूसरों को सुख पहुंचाने का काम करते हैं। संत जीव के उद्धार के लिए इस धराधाम पर आते हैं। जैसे नदी स्वयं जल नहीं पीती है, वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, ठीक उसी प्रकार संतों का जीवन भी हमेशा दूसरों के कल्याण के लिए होता है। जो ईश्वर का भजन करते हैं और आगे भी करते रहेंगे उनका इहलोक और परलोक दोनों मंगलमय होगा। सदाचार ही जीवन है। सुसंग से सुख व कुसंग से दुख होता है। सुख न तो बाहर हैं और न बाहर की वस्तुओं में हैं। यदि तुम सुख चाहते हो तो ईश्वर की भक्ति करो। संतों के मार्ग पर चलकर ही मानव जाति का कल्याण किया जा सकता है। संत के ज्ञान को समझने के लिए भगवान इन्द्र को पूरे सौ वर्ष लगे थे।