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क्‍या दलाली पत्रकारिता को खतम कर देगी?

आजकल पूरे मीडिया जगत में दलाली व भडुआगिरी से हाहाकार मचा हैं. पढ़ा-लिखा, अनुभवी, पत्रकारिता की डिग्री धारक पत्रकार इस दलालगिरी से बहुत ज्यादा त्रस्त है. पढ़े-लिखे अनुभवी पत्रकारों में फेस बुक पर दलालिता व भडुआ संस्कृति पर घंटों गुजर जाते हैं चूंकि कभी किसी दौर में बुद्धिजीवी तबका कहे जाने वाले पत्रकार को अब दलाल की उपमा दी जाने लगी हैं. बड़े-बड़े समाचार पत्रों व बड़े टीवी चैनलों में दलाल संस्कृति सबसे ज्यादा दिखाई देने लगी हैं, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले इस भारत वर्ष में चौथे पहिये में दलाली व भडुआगिरी कहाँ तक उचित हैं. इस बात पर कोई ध्यान देने वाला नहीं हैं. भड़ास४मीडिया पिछले चार सालों में भारत के स्ट्रिंगरों की सबसे बड़ी आवाज के रूप में उभर कर आया है, जो कि स्ट्रिंगर की हालत बहुत बढिया बयान करता है.

भड़ास के मुताबिक़ स्ट्रिंगर को दिन के खाने के बाद रात का खाना नसीब नहीं हैं, लेकिन शायद कभी भड़ास ने कोई सर्वे करा की किस शहर में किस चैनल का स्ट्रिंगर दुखी है, शायद नहीं लेकिन फिर भी भड़ास स्ट्रिंगरों का बहुत बड़ा हितैषी बनकर उभरा, जो कि काफी काबिले तारीफ़ है. लेकिन दूसरी तरफ आज कई चैनलों के स्ट्रिंगर इतना पैसा बनाये बैठे हैं, जितना मीडिया लाइन का काफी अच्छा अनुभव रखने वाले मेरे बड़े भाई यशवंत के पास भी नहीं होगा. आज हालात यह है कि पूरे देश में स्ट्रिंगरों की स्थति सही नहीं है, लेकिन उसके बाबजूद भी ४ व ६ महीने में लगने वाली एकाध खबर के बलबूते स्ट्रिंगर कैसे क्लास वन अधिकारी का जीवन यापन कर रहे हैं. स्ट्रिंगर दरिद्र बताये जाने लगा हैं. लेकिन अगर मान लीजिये कल ही कोई नया चैनल खुलता हैं तो फिर यही स्ट्रिंगर लाखों रुपया जमा करके आईडी कैसे ले आता है.

वह कभी जीवन में अपने चैनल से यह सवाल नहीं करता कि आप मुझे भुगतान कैसे करेंगे व कितना करेंगे. मेरा कहने का मतलब यह है कि एक तरफ तो स्ट्रिंगर रोता है तो दूसरी तरफ कोई नया चैनल खुलते ही झट से चैनल का लोगो ले आता है. मुझे बड़ी शर्म आती हैं जब में देखता हूँ कि कोई इसी तरह का स्ट्रिंगर किसी लाला के यह कह रहा होता है कि केवल दस लाख लगा दो फला चैनल का लोगो आ जायेगा. जा के मुंह पे लगा देंगे वो ही दो लाख देगा. तुम्हे पता नहीं है कि वने का का वना डालो बा चैनल से. यह शायद वह भाषा हैं जिसे सम्भवता एक स्ट्रिंगर किसी लाला से किसी नेशनल चैनल का लोगो लाने के लिए कहता है. इस आर्टिकल को जो मेरे बड़े भाई पढ़ रहे हों, वह गहन अध्ययन करें कि फिर स्ट्रिंगर दरिद्र कहा हैं. कहीं न कहीं बड़े पैमाने पर धंधा चल रहा हैं, जिसके कारण आज हालत यह है कि जिस शहर में जितने आखबार नहीं हैं, उससे ज्यादा स्ट्रिंगर व छोटे अखबारों के ब्यूरो हैं, जिन्हें मीडिया की परिभाषा नहीं आती.

अगर स्ट्रिंगर भाइयों को अपना स्वरुप अच्छा बनाना हैं तो उन्हें सबसे पहले यह एकता लानी होगी ककि वह एक रूप अपना लें और सभी चैनल का विरोध करें और सभी एक स्वर में चैनल से भुगतान मांगे, देखें एकता कैसे नहीं आएगी. यही नहीं इतना सब कुछ कर दें कि अगर कोई चैनल मंथली भुगतान नहीं करता हैं तो उसे खबर ही देना बंद कर दें. और हो सके तो ऐसा सिस्टम कर दें कि सभी जिले के या देश के स्ट्रिंगर भाई मंथली भुगतान लिए बिना कम नहीं करे और न ही किसी को करने दें. देखें चैनल कैसे भुगतान नहीं करेगा. ऐसी स्थिति में चैनल तो क्या चैनल का बाप भी काम नहीं कर सकता. लेकिन शायद हमारे भीतर एकता नहीं इसलिए कोई भी नया चैनल आता हैं तो हम झट से लाखों रुपया लगा कर उस चैनल का लोगो ले आते हैं. यह कहां तक उचित हैं. उसके बाद हम गुट बनाके चौथ वसूली में लग जाते हैं यह कहाँ तक उचित हैं.

ये बात दीगर हैं कि पांचों उँगलियाँ एक सी नहीं होती है इसलिए आज भी जो स्ट्रिंगर भाई इस दलाली वाली प्रक्रिया में शामिल नहीं हैं वह निम्न लेबल का जीवन गुजार रहे हैं जबकि दलाली में लिप्त स्ट्रिंगर अधिकारी लेबल का जीवन जी रहे हैं. जो कि लाखों रुपया देकर हाल ही लौंच हुए किसी भी चैनल का लोगो ले आते हैं, यही से शोषण का खेल चलता है जो लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ की हत्या कर देता है. कहीं कहीं तो चैनल के मालिकान यहाँ तक पूछ लेते हैं कि फलाने जिले से क्या दोगे? शाययद उन्हें पता है कि स्ट्रिंगर चैनल के नाम पर लाखों का धंधा करते हैं और उसके चक्कर में सीधे-साधे स्ट्रिंगर भाइयों की साख पर बट्टा लागता हैं, जो कि उचित नहीं हैं, अगर किसी स्ट्रिंगर भाई को इन शब्दों पर कोई आपति हैं तो कृपया अभिषेक डाट मीडिया@याहू डाट इन पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है.

अभिषेक सिंह

आगरा