शशि शेखर
shashi.shekhar@livehindustan.com
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कल गंगा किनारे बसे पटना से लौटा हूं। वहां सहयोगियों से बातचीत के दौरान मैंने पूछा कि शहर के बाशिंदे इस सदानीरा से कितने जुड़े हुए हैं? एक वरिष्ठ साथी का ईमानदार जवाब था- आप काशी में जन्मे और रहे हैं, पर वहां के लोगों की तरह हमारे यहां गंगा के प्रति उतना लगाव नहीं है। यहां के लोगों में गंगा के प्रति धार्मिक श्रद्धा तो है, पर रोजमर्रा की संवेदनाएं उतनी जुड़ी हुई नहीं हैं। मुझे धक्का लगा।
इस महान शहर ने उस समय जीवन, जय और जागृति को नई व्याख्याएं दी थीं, जब ईसा को जन्मने में शताब्दियां शेष थीं। अशोक महान ने यहीं के एक घाट से अपनी पुत्री संघमित्र को ‘धम्म’ प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था। गंगा उन दिनों भी आर्यावर्त की जीवन-रेखा हुआ करती थी। हमारे खेत उसी के दोआब से हरे-भरे थे। भागीरथी की चौड़ी छाती और गहरी धार मालवाहक पोतों के लिए आवाजाही का जरिया हुआ करती थी। यह नदी नहीं, हमारी पुरखिन है, पर अब इससे इस जागृत शहर के लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी उतनी प्रभावित नहीं होती! यह कटु सत्य सदमे की तरह भले ही मुझ पर टूट पड़ा हो, लेकिन इससे हकीकत धुंधली तो नहीं हो जाती?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सौ से ज्यादा बड़े-छोटे शहरों और हजारों गांवों को अपने किनारे रचने वाली यह नदी अपने बच्चों के प्यार से वंचित हो गई है। इसीलिए दुनिया के प्रकृति विज्ञानी इसे संसार की पांच सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में गिनते हैं। महानदी का यह महापतन एक दिन में नहीं हुआ है। मुझे अपना बचपन याद आता है।
बनारस, मिर्जापुर और इलाहाबाद के घाटों की तमाम सुबहें इस बात की साक्षी हैं कि मैं और मेरा परिवार पारंपरिक आस्था को सहेजे रखने के लिए अक्सर उसके घाटों पर पहुंच जाया करता था। मेरे माता-पिता उन लोगों में से हैं, जो मानते हैं कि गंगा स्नान के वक्त साबुन जैसे पदार्थों का इस्तेमाल अनुचित है। उनकी नजरों में यह नदी इतनी पवित्र है कि उसकी एक डुबकी हमारे तन और मन की शुद्धि के लिए पर्याप्त है। इसके लिए किसी बाहरी साधन की जरूरत नहीं। दूसरी वजह यह हुआ करती थी कि अगर गंगा में ऐसे ही साबुन लगाकर नहाया जाता रहा, तो धारा के मैला होने का खतरा बढ़ता जाएगा। यह देखकर खुशी होती कि पौ फटे घाट पर जमा अधिसंख्य लोग हमारी तरह सोचते और हमारा साथ देते। दुर्भाग्य से यह कोशिश आधी-अधूरी थी। क्यों?
उन दिनों बहुत-से लोग अपने हाथों में डिब्बे लेकर आते थे। उनकी मान्यता थी कि गंगाजल पीने से उनका शरीर रोग-शोक से दूर रहेगा। हालांकि, किसी ने ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी कि हमारे घरों में जो धोबी आते हैं, उन्होंने कपड़े धोने की सबसे मुफीद जगह इनमें से किसी एक घाट को बना रखा है। यहां से बड़ी संख्या में कपड़ों की गंदगी और साबुन निस्संकोच इस सदानीरा की कोख में उड़ेल दिया जाता। फिर परंपरागत रूप से शहर की तमाम गंदगी नालों की शक्ल में उसमें जा समाती। यह क्रम आज भी जारी है। उन दिनों बाल सुलभ उत्सुकता से पूछता भी कि नालों के आस-पास घाट बने हुए हैं, इनके कचड़े से क्या गंगा गंदी नहीं होती? जवाब मिलता- नहीं। हिमालय से ही यह नदी ऐसी जड़ी-बूटियां अपने अंदर समाहित करके चलती है कि उसका जल कभी प्रदूषित नहीं होता। यह सच था। मेरे बाबा ने संन्यास लेने के बाद दंड धारण कर लिया था। उन्हें उनके गुरु ने हिदायत दी थी कि दंडी स्वामियों को सिर्फ गंगाजल पीना चाहिए। लिहाजा हम उनके लिए ढेर-सा गंगाजल हर कुछ दिनों के अंतराल पर ले जाते। वह उसी को पीते और उसी से स्नान करते। जो रिश्तेदार गंगा से दूर रहते थे, वे हमारे यहां से गंगाजल ले जाते। उनके यहां महीनों तक इसे ईश्वर की मूर्तियों और चित्रों के स्नान के लिए प्रयोग में लाया जाता। डिब्बों और बोतलों में बंद गंगाजल कभी सड़ता नहीं था।
हमारे गांवों में मान्यता थी कि मरते हुए व्यक्ति के मुंह में यदि गंगाजल और तुलसी डाल दी, तो उसके सारे पाप धुल जाएंगे। उसकी आत्मा मोक्ष को प्राप्त होगी। जो साधन संपन्न और भाग्यशाली होते, संतानें उनकी निर्जीव देह को गंगा किनारे लाकर अंतिम संस्कार करतीं। आज भी इस महानदी के किनारे सैकड़ों की संख्या में स्नान घाट हैं, जहां हजारों मुर्दे प्रतिदिन जलाए जाते हैं। काशी के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट या फिर गढ़-मुक्तेश्वर के किनारे सैकड़ों मील दूर से लाए हुए शव अपनी बारी का घंटों तक इंतजार करते हैं। मालूम नहीं, मृतकों की अस्थियां और राख गंगा में प्रवाहित होने के बाद उनकी आत्मा को कहां तक लाभ पहुंचाती हैं, पर यह सच है कि हमारी आस्थाओं की मां यह नदी, हर रोज और अधिक प्रदूषित होती जा रही है। आज इसके किनारों पर खड़े होकर आप शीतलता नहीं, बल्कि तरह-तरह की दरुगध महसूस करते हैं। ऋषिकेश के बाद हर किलोमीटर पर इसकी परंपरागत पवित्रता आघात झेलती चलती है।
पिछले साल पटना शहर में गंगा किनारे पर कुछ देर खड़ा होने की कोशिश की। यकीन जानिए, कुछ देर में हिम्मत टूट गई। दुर्दशाग्रस्त घाट, मैली सदानीरा और उसके किनारे पर जमा कूड़ा मुझे दुखी कर रहा था। बाद में हावड़ा में काली घाट से रामकृष्ण मठ तक नौका से जाने का मौका मिला। सागर में अपनी तप यात्रा को विलीन करने से पहले यह नदी खुद समुद्र-सी चौड़ी नजर आती है। उसका बहाव धीमा पड़ जाता है और गहराई बढ़ जाती है। हम इंसान भी तो उम्र के साथ गतिकुंद, पर अनुभव समृद्ध होते जाते हैं! गंगा को इस मुकाम पर महावैभवी होना चाहिए था, पर यह क्या? दूर-दूर तक उसकी सतह पर मालाएं, पॉलीथिन और तरह-तरह की गंदगी तैरती दीख रही थी। बचपन से इस नौका यात्रा की कामना संजो रखी थी। जब बच्चे जवान हो गए, तो उनके साथ वहां जाने का मौका मिला। वहां के हालात देख मन इतना उदास हुआ कि लौटकर घंटों गुमसुम बना रहा।
सौभाग्य से नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने इसे साफ करने की कसम खाई है। अपने नए निर्वाचन क्षेत्र काशी में पहुंचने के बाद उन्होंने जो पहले शब्द कहे, वे थे, ‘मुझे न किसी ने भेजा है, न मैं यहां आया हूं। मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।’ उम्मीद है कि वह अपनी शपथ पूरी करने की कोशिश करेंगे। दुखद है कि इससे पहले 1986 में राजीव गांधी ने अरबों रुपये की योजना शुरू की। 2011 में ‘नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी’ को 7,000 करोड़ रुपये की मंजूरी भी मिली, पर हुआ वही, ढाक के तीन पात।
हम गंगा किनारे बसने वाले लोग इसे सिर्फ सरकारी काहिली कहकर मुक्ति नहीं पा सकते। गंगा हम सबकी है और हम उसके हैं। उसकी रक्षा का दायित्व किसी हुकूमत से ज्यादा हमारा है। जो नदियां सभ्यताओं को रचती हैं, उन्हें सरकार के रहमोकरम पर छोड़ देना हकीकत से पलायन होगा। इस सच को समझने का आज से बेहतर कोई दिन नहीं हो सकता।
क्या आपको याद है, आज गंगा दशहरा है!
