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कर्नाटक की नैया के नये खेवैया बने सिद्घरमैया

तमाम कशमकश के बाद सिद्घरमैया कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री मल्लिकार्जुन खडग़े और कर्नाटक के मुख्यमंत्री की कुर्सी के बीच की दूरी एक बार फिर नहीं मिट पाई।
आलाकमान ने खडग़े पर सिद्घरमैया को तरजीह दी। खडग़े अगर मुख्यमंत्री बनते तो उन्हें लोकसभा की महत्त्वपूर्ण गुलबर्गा सीट से इस्तीफा देना पड़ता। उनके बजाय पार्टी ने राज्य में काम कर रहे नेता को ही चुना, जिसके साथ विधायक 'सहजÓ हों।
सिद्घरमैया कांग्रेस में अपेक्षाकृत नए नेता हैं, जो 2005 में अपने राजनीतिक गुरु एच डी देवेगौड़ा का साथ छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए। देवेगौड़ा भी इस करिश्माई नेता के जबरदस्त मुरीद थे। भाषण कला में दक्ष सिद्घरमैया को देवेगौड़ा ने उपमुख्यमंत्री तो बनाया लेकिन शीर्ष पद पर नहीं बिठाया। देवेगौड़ा ने मुख्यमंत्री अपने बेटे को ही बनाया। सिद्घरमैया जनता दल सेक्युलर (जदएस) से अलग हो गए। कांग्रेस ने उनका पलकें बिछाकर स्वागत किया, वह अपने साथ कुछ विधायकों को भी तोड़कर ले गए। इन्हीं विधायकों के दम पर अब वह दावा कर रहे हैं कि उन्हें 'कांग्रेस के सभी 121 विधायकों का समर्थन हासिल है।Ó
मल्लिकार्जुन खडग़े को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। वह कांग्रेस के टिकट पर नौ दफा विधायक रह चुके हैं। मगर मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। वर्ष 1996 और 2004 में दो मौकों पर कांग्रेस के हाथ कर्नाटक की सत्ता लगी लेकिन खडग़े दूसरों से पिछड़ गए। कर्मचारी संघों के वकील के रूप में करियर शुरू करने वाले खडग़े शिद्दत से अपने गृह राज्य में वापसी चाहते थे। कुछ बातें उनके खिलाफ भी हैं। जब वह कर्नाटक कांग्रेस के प्रमुख थे तो उनका रवैया बहुत अफसोसजनक माना गया, जो भाजपा की बढ़ती चुनौती का तोड़ निकालने के बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। उनके कार्यकाल में तकरीबन तीन साल तक राज्य में पार्टी की कार्यकारिणी ही गठित नहीं हो पाई। वर्ष 2006-07 में श्रीराम सेना सहित दूसरे कुछ समूहों ने वीरप्पा मोइली के प्रभाव वाले मंगलूर और तटीय कर्नाटक के इलाकों में उत्पात मचाया तो उन्होंने वहां जाना मुनासिब नहीं समझा। वहां कोई टीम तक नहीं भेजी, जो तथ्य जुटाकर भेज पाती। आखिरकार आलाकमान के निर्देश पर उन्हें खुद ही वहां जाना पड़ा लेकिन तब तक मुद्दे की हवा निकल गई थी।
ये सब अतीत की बातें हैं। अब सिद्घरमैया को कमान संभालनी है और कर्नाटक को ऐसा शासन देना होगा, जिसकी उसे सख्ती से दरकार है। फिलहाल राज्य कई चुनौतियों से जूझ रहा है। बात केवल चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने की ही नहीं है बल्कि राज्य की पस्त पड़ी खेती और बिजली की भारी किल्लत के बीच काम करना होगा। कांग्रेस ने चुनाव में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को हर महीने एक रुपये किलोग्राम की दर से 30 किलो चावल, किसानों को ब्याज मुक्त कर्ज, स्कूल जाने वाले छात्रों को मुफ्त लैपटॉप, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए उत्तरी कर्नाटक में बीदर और दक्षिण में कामराजनगर तक 8 लेन का एक्सप्रेसवे, बंदरगाहों और हवाई अड्डïों से बेहतर जुड़ाव के साथ 50 लाख नौकरियों के सृजन जैसे प्रमुख वादे किए। अपने शासन के दौरान भाजपा के एक कदम की तारीफ जरूर की जानी चाहिए। उसने राज्य में कई ताप बिजलीघरों की स्थापना की। जब ये सभी संयंत्र शुरू हो जाएंगे तो राज्य को 5,000 मेगावॉट अतिरिक्त बिजली मिलेगी और कर्नाटक बिजली अधिशेष वाला राज्य बन जाएगा।
मगर इन संयंत्रों को कोयला नहीं मिल पा रहा है। यरमारस ताप बिजलीघर अभी भी कोयला आपूर्ति का इंतजार कर रहा है। यह अकेला बिजलीघर ही राज्य को 1,600 मेगावॉट बिजली दे सकता है। इसमें सबसे अच्छा पहलू यही है कि हाल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि कर्नाटक में जिस पार्टी की सरकार है, केंद्र में भी वही पार्टी सत्ता में है। इसलिए कम से कम एक साल तक तो केंद्र सरकार राज्य की हर मुराद पूरी कर सकती है।
खेती में आई सुस्ती एक और समस्या है। कर्नाटक लगातार दो साल से सूखे का शिकार है। दक्षिण कर्नाटक की कपास एवं गन्ना उत्पादक पट्टïी से जबरदस्त उत्पादन के चलते वर्ष 2010-11 में राज्य ने 13 फीसदी की आश्चर्यजनक कृषि वृद्घि दर हासिल की। मगर वर्ष 2011-12 के दौरान राज्य की कृषि विकास दर -2.9 फीसदी रही। इसकी मुख्य वजह पानी की कमी रही। राज्य में एक साल के दौरान दो महीनों तक लोग पानी और बिजली के लिए तरसते रहे, जिससे किसानों के लिए बोरवेल चलाना असंभव हो गया। फिर भी कई पैमानों पर कर्नाटक देश के दूसरे कई राज्यों से आगे है। राज्य की वित्तीय स्थिति ठीक है। वर्ष 2011-12 में राज्य का राजकोषीय घाटा उसके सकल घरेलू उत्पाद का 2.9 फीसदी रहा और उस पर कर्ज भी कम होता जा रहा है, जिससे ब्याज अदायगी पर खर्च घटेगा। राज्य की चुस्त-दुरस्त माली हालत से ही स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्रों में सुधार संभव हो सके।
सिद्घरमैया कामयाब वित्त मंत्री थे लेकिन  कुछ बातों को लेकर विधायकों को चिंता सता रही होगी। कांग्रेस जिन 121 सीटों पर जीती है, उनमें से 70 सीटें शहरी इलाकों की हैं। सिद्घरमैया की राजनीति में शहर विरोधी मानसिकता हमेशा कायम रही है और उन्होंने कर्नाटक राज्य रैयत संघ के एम डी नंजुदास्वामी जैसे कद्दावर किसान नेताओं की सरपरस्ती में सियासती गुर सीखे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और दलित नेता जी परमेश्वर पार्टी में उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे। परमेश्वर का उस विधानसभा सीट से चुनाव हारना भी कई लोगों को पच नहीं रहा है, जहां सिद्घरमैया की कुरबा जाति के लोगों की भारी तादाद है। राज्य के पार्टी नेताओं ने परमेश्वर को इस बारे में चेताया भी था कि आपको हराने के लिए वहां योजना तैयार है लेकिन परमेश्वर भी इसे नजरअंदाज ही करते रहे।
सिद्घरमैया में भले ही कितना गंवईपन हो लेकिन उन पर आज तक भ्रष्टïाचार का कोई आरोप नहीं लगा। उनका नास्तिक होना भी एक समस्या हो सकती है। दो साल पहले उन्होंने ऐलान किया था कि सरकार उडुपी के प्रसिद्घ कृष्ण मंदिर को अपने कब्जे में ले लेगी। यह मंदिर मध्यकालीन भारत में उनके पूर्वज रहे कनकदासा ने बनाया था, जिन्हें उनकी जाति कुरबा के लोग अपना कुलदेवता मानते हैं। खनन मसले पर उनकी कार्रवाई सरकार की साख तय करेगी।