सलमान रावी
बीबीसी संवाददाता, उडूपी (कर्नाटक) से
भारत के पश्चिमी समुद्री तट पर उच्च ज्वार का वक़्त है.
तेज़ हवाएं चल रहीं हैं और अरब सागर की लहरें मंगलौर के किनारे से जोर जोर
से टकरा रहीं हैं. इसी के बीच समुन्दर के इस किनारे की फिजाओं में भोजपुरी
गीत भी गूँज रहा है. दक्षिण भारत के इस सुदूर तटीय इलाके में अचानक भोजपुरी
गीत सुनकर कोई भी चौंक जाएगा.
यहाँ का खान पान, यहाँ की वेश भूषा और यहाँ की बोली, सबकुछ अलग है. जहाँ हिंदी बोलने वाले सिर्फ एक्का दुक्का हों वहां पर भोजपुरी गीत की आवाज़ कानों में पढ़ते ही होठों पर मुस्कराहट आ जाती है.
आखिर कौन हैं ये लोग जो ये गीत सुन रहे हैं ? मंगलौर के पनम्बुर तट की रेत पर चलता हुआ मैं वहां पहुंचा जहाँ ये गाना बज रहा था.
पता चला की समंदर किनारे ये जमात उन लोगों की है जो बिहार मे आरा के रहने वाले हैं. पिछले कई सालों से इन लोगों नें इस समुद्री किनारे को अपना आशियाना बना रखा है. पनम्बुर तट पर आने वाले पर्यटकों के लिए 'बिहारियों का ढाबा' अब काफी लोकप्रिय हो गया है.
इस ढाबे पर गोल-गप्पे, चाईनीज़ खाने के अलावा चाट भी मिलती है. दाल-भात, आलू का चोखा और लिट्टी तो सिर्फ यहाँ काम करने वाले खुद के लिए बनाते हैं क्योंकि उत्तर भारत के व्यंजन देश के इस हिस्से में उतने लोकप्रिय नहीं हैं.
उडुपी व्यंजन की जन्मस्थली में बिहारी ढाबा अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहा है.
रोज़गार की तलाश

आज भले ही हालात पहले से ठीक हो गए हों मगर उनका कहना है कि उस वक़्त उन्हें बिहार में अपना भविष्य नज़र नहीं आ रहा था.
मंगलौर आने के बाद योगेश्वर नें पनम्बुर तट पर कैंटीन चलाने का ठेका लिया. उसके बाद उन्होंने अरब सागर के किनारे अपना नया भविष्य तलाशने की कोशिश शुरू कर दी.
योगेश्वर अपने साथ आरा से कई और लोगों को लेकर आये जो उनका कैंटीन चलाने में हाथ बताया करते है. कैंटीन के अलावा उन्होंने इस तट पर अपना ढाबा भी खोल लिया.
बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “अब हमने यहाँ के रंग में खुद को ढाल लिया है. ढाबे में काम करने वाले लोग भी यहाँ के रंग में रंग गए हैं. अब हम यहाँ की बोली भी समझ लेते हैं. पहले तो भाषा को लेकर काफी मुश्किलें आयीं. मगर अब ठीक है. अब हम काम चला लेते हैं.”
पनम्बुर तट के व्यवस्थापक येथीश बायेकमपाडी कहते हैं कि जब से बिहार ढाबा खुला है वो गाहे बगाहे यहाँ दोस्तों के साथ आकर लिट्टी का आनंद लेते हैं.
इस ढाबे में काम करने वाले छोटू कुमार और सुबोध भी रोज़गार की तलाश में मंगलौर आ पहुंचे.
इनके अलावा आरा के कई और लोग भी हैं जो यहाँ काम करते हैं जिनका कहना है कि बदलाव के बावजूद आज भी बिहार में काफी अभाव है. फिर भी सभी मानते हैं की हालात पहले से बेहतर हुए हैं.
योगेश्वर हर साल अपने घर जाते हैं. खास तौर पर पर्व त्यौहार या पारिवारिक अनुष्ठान में शामिल होने.
ढाबे के बाकी लोगों का भी यही हाल है. मगर मंगलौर में रहते रहते अब इन सबको ये जगह अच्छी लगने लगी है.
सुबोध कहते हैं," यहाँ सामाजिक तनाव नहीं है. यहाँ लोग भी अच्छे हैं. ये एक अच्छी जगह है जहाँ सब पढ़े लिखे हैं. कोई शोर शराबा नहीं. किसी को किसी से कोई मतलब नहीं. शुरूआती दिनों में खाने को लेकर समस्या होती थी. मगर अब हमें यहाँ का खाना अच्छा लगता है."
वैसे इस बिहारी ढाबे पर कभी कभी जब लिट्टी बनती है तो ये लोग मंगलौर के अपने मित्रों को आमंत्रित करते हैं. पनम्बुर तट के व्यवस्थापक येथीश बायेकमपाडी कहते हैं कि जबसे बिहारी उनके तट पर आये हैं वो गाहे बगाहे यहाँ दोस्तों के साथ आकर लिट्टी का आनंद लेते हैं.
तट पर कई सालों से रोज़गार कमा रहे बिहार के इन वासियों को लगता है की अब वो यहाँ बस सकते हैं. मगर अपने खेत खलिहानों, अपने करीबियों की याद इन्हें फिर बिहार वापस लेकर जाती है. उन्हें लगता है की बदले हुए परिवेश में अब वो बिहार में ही रहकर अपनी आजीविका कमा सकेंगे.