डॉ. मुकेश कुमार
बिहार के पूर्णिया जिला मुख्यालय से लगभग चालीस किलोमीटर दूर धमदाहा प्रखण्ड के कुकरन गांव में इन दिनों पुलिस घूमती है और जैना मंडल के तरह-तरह के किस्से. गांव में कौन पकड़ा गया और कौन अपनेकिस रिश्तेदार के यहां पनाह लिये हुये है, इसकी खुसुर-फुसुर तो चलती ही रहती है. आक्रोश, क्षोभ और आशंकाएं आपस में गड्ड-मड्ड हो कर गांव की गलियों में पसरती रहती हैं.
गांव में पिछले कई दशकों से उठने वाले जमीन के कई सवालों के जवाब जब बरसों-बरस तक अनुत्तरित रहे तो आदिवासियों के आक्रोश की अभिव्यक्ति 38 साल के जैना मंडल को जिंदा जला देने के रूप में सामने आई. यह घटना बीते 24 मई, 2013 की है, जब जिले के कुकरन गाँव की आदिवासी महिलाओं ने जमीन व इंदिरा आवास सहित अन्य मामलों से संबंधित ठगी से तंग आकर पंचायत के मुखिया चीमा देवी के पति जयनन्दन मंडल उर्फ जैना मंडल को जिंदा आग के हवाले कर दिया.
यह घटना दिन के लगभग ग्यारह बजे उस वक्त घटी, जब जैना मंडल अपने साथ हथियारों से लैश आठ-दस लोगों को लेकर अपने ईंट भट्ठे के लिए आदिवासियों के कब्जे वाली जमीन पर ‘जेसीवी’ मशीन के साथ मिट्टी खोदने पहुंचा. आदिवासियों ने शुरू में इसका विरोध किया लेकिन जैना मंडल और उसके आदमी नहीं माने. आदिवासियों को डराने के लिए हवा में उन लोगों ने राइफल से गोली चलाई. इससे आदिवासियों का गुस्सा भड़क उठा और वे परंपरागत हथियारों से लैश होकर प्रतिरोध के लिए आ डटे.
दो तरफा संघर्ष के बाद आदिवासी जैना मंडल के गुर्गे को खदेड़ने में कामयाब रहे. इस दौरान जैना मंडल सहित एक अन्य व्यक्ति आदिवासियों की गिरफ्त में आ गया. आदिवासी स्त्री-पुरुषों ने उस आदमी को तो छोड़ दिया लेकिन जैना मंडल की जमकर धुनाई की और उसे छोड़ देने के आगामी खतरों को भाँपते हुए आग जलाकर उसमें झोंक दिया. यह पूरी कार्यवाही दिन के ग्यारह बजे से तीन बजे के बीच तक चलती रही.
बताया जाता है कि मृतक जैना मंडल का रिश्ता, पूर्णिया जिले के ही रुपौली विधायक बीमा भारती (जद-यू) के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दबंग पति अवधेश मंडल (फिलहाल वे पत्नी के निजी सचिव की हत्या के मामले में जेल में हैं) गिरोह (जिसे ‘फैजान-पार्टी’ के नाम से जाना जाता है), से रहा है. कुछ दिन पहले तक इस गिरोह से इस पूरे इलाके में हड़कंप मचा रहता था. हालांकि उसका आतंक और दबदबा आज भी कायम है, जिसके दम पर बीमा भारती पिछले तीन बार से विधायक हैं. जैना मंडल पर अपराध के कई मुकदमे भी चल रहे हैं, जो उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि का ही सबूत देते हैं.
ऊपरी तौर पर इस घटना को देखने पर आदिवासियों की कार्रवाई बरबर्रतापूर्ण लगती है. लेकिन गहराई में जाकर देखने पर मामला दूसरा ही नजर आता है. वस्तुतः इस आक्रोश के पीछे कई मामलों के खिलाफ घनीभूत सामूहिक गुस्सा और भय दोनों व्याप्त रहा है. मामले की तह में जाकर देखने पर यह पूरी घटना बीते युग के धूर्तता की याद ताजा करा देती है, जब महाजनों द्वारा आदिवासियों से जमीन का पट्टा उन्हें धोखे में रखकर लिखवा लिया जाता था.
घटना को समझने के लिए इस पूरी कहानी को समझना जरुरी जान पड़ता है. कहानी का ‘मुख्य किरदार’ जैना मंडल है. मूलतः भागलपुर जिले के नवगछिया प्रखण्ड के गुरुनाथ नगर गंगानगर गाँव के रहने वाले जैना मंडल ने आज से लगभग पाँच-छह वर्ष पूर्व इस आदिवासी गाँव के समीप की 14 एकड़ जमीन, जो बिहार के चर्चित जमींदारों में से एक मौलचंद के रिश्तेदार सुख सिंह की है, खेती करने के लिए ‘लीज’ पर लिया.
खेती के सिलसिले में इस आदिवासी गाँव में उसका आना-जाना बढ़ गया और इसी क्रम में उसने एक आदिवासी लड़की को प्रेम जाल में फांस कर उससे विवाह कर लिया. जबकि वह पूर्व से ही शादी-शुदा था और उसकी पहली पत्नी सरकारी स्कूल में ‘शिक्षामित्र’ की नौकरी कर रही है.
अनुसूचित-जनजाति के लिए आरक्षित पंचायत होने का लाभ लेते हुए उसने अपनी आदिवासी पत्नी को मुखिया पद के लिए चुनाव में खड़ा किया और चुनाव जीताने में सफल भी हो गया. इसलिए यह पूरा मामला भूमि हड़पने की एक सुनियोजित साजिश की तरह ही लगता है. वर्ष 2009 में गाँव के 70 आदिवासी परिवारों को इंदिरा आवास बनाने हेतु 35-35 हजार रुपये मिले. उन सभी परिवारों का भरोसा जीतकर उसने सबका घर बना देने की बात कहते हुए उनसे इंदिरा आवास का पैसा अपने पास जमा करा लिया. भोले-भाले आदिवासियों ने उस पर भरोसा करने के साथ-साथ पैसा दूसरे काम में न खर्च हो जाए, इस डर से उसके हवाले कर दिया. बिना कोई वक्त गवाएं इस पैसे से जैना मंडल ने ईंट बनाने का चिमनी-भट्ठा खोल लिया और ईंट का व्यापार करने लगा.
कुछ दिन इंतजार करने के बाद आदिवासी उससे पूर्व में किए गए वादे के मुताबिक घर बनाने की मांग करने लगे. लेकिन इसमें वह आनाकानी करने लगा. इससे तंग आकर, लगभग दो माह पूर्व आदिवासियों ने उसके ईंट भट्ठे की ओर जाने वाले रास्ते को अवरुद्ध कर दिया. इससे व्याकुल होकर जैना भाकपा-माले के स्थानीय नेताओं (इन आदिवासी गांवों में माले का ही जनाधार है) के पास गया और रास्ता खुलवा देने में सहयोग करने की अपील की. भाकपा-माले के जिला कमिटी सदस्य एसके भारती बताते हैं कि,‘पार्टी नेताओं की मौजूदगी में जल्द ही घर बना देने के उसके आश्वासन पर भट्ठे का आदिवासियों द्वारा बाधित रास्ता साफ कराया गया.’ लेकिन दो माह बीत जाने पर भी उसने आदिवासियों के घर बनाने की दिशा में कोई पहल नहीं की.
इतना ही नहीं, इस पूरी दास्तान में एक और गंभीर मामला छुपा हुआ है. बताया जाता है कि जैना ने जिस भूस्वामी सुख सिंह की जमीन ‘लीज’ पर ली थी, काफी पहले उसने अपनी दो बेटियों को 51-51 एकड़ जमीन दान में दी थी. इस जमीन का एक हिस्सा, लगभग 17 एकड़ आदिवासी गाँव के ही पास है. इस जमीन को राज्य सरकार ने ‘लाल कार्ड’ घोषित कर दिया था, तभी से इस जमीन पर आदिवासी खेती-बाड़ी करते आ रहे थे.
राज्य सरकार के इस निर्णय के खिलाफ भूस्वामी हाईकोर्ट गए और कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में आया. इससे आदिवासी आर्थिक संकट में फंस गए. कहा जाता है कि इस संकट का हल निकाला जैना मंडल ने और भूस्वामी को जमीन बेचने पर राजी कर लिया.
आदिवासियों के साथ मिलकर उसने तय किया कि सभी थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीद लें. फिर उसने सभी आदिवासियों से अपने पास पैसा इकट्ठा करने को कहा. आदिवासियों ने जमीन खरीदने व लिखवाने की कानूनी प्रक्रिया की जानकारी के अभाव में उसके पास ही पैसा जमा कर देने में भलाई समझी, ऐसे भी आदिवासी लड़की से शादी कर वह उन्हीं के परिवार का रिश्तेदार तो बन ही चुका था. उस पर भी उसकी पत्नी पंचायत की प्रधान यानि मुखिया थी. आदिवासियों में प्रधान को अत्यंत ही श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है.
लेकिन जैना मंडल ने जिन आदिवासियों से जमीन खरीदने का पैसा जमा किया था, उनके नाम जमीन खरीदने के बजाय सारी जमीन अपनी मुखिया पत्नी के नाम करा लिया. इसका राज तब खुला जब आदिवासी लोग उससे अपने-अपने हिस्से की जमीन बाँट देने की बात करने लगे.
इससे निपटने के लिए जैना ने जिले के डीसीएलआर (भू-राजस्व से संबंधित अधिकारी) के पास अपनी पत्नी के नाम खरीदी गई जमीन की ‘पोजीशन’ बताने की अर्जी दे डाली. इसके उपरांत लगभग एक वर्ष पूर्व एसडीओ ने वहाँ का जायजा लिया तो इस मामले का राज खुला. आदिवासियों ने उनसे अपनी कथा-व्यथा बताई. इस भयानक धोखाधड़ी और मामले की जटिलता को देखते हुए वे वापस लौट आए. इस पूरी घटना की वस्तुस्थिति जानकर आदिवासियों के पैर के नीचे से जमीन खिसक गई.
माले नेता अविनाश पासवान बताते हैं कि बाद में भाकपा-माले नेताओं से भी एसडीओ की इस मामले को सुलझाने को लेकर लंबी वार्ता हुई, जिसमें माले नेताओं ने आदिवासियों के हिस्से की जमीन उनके नाम हस्तांतरित करने और जैना मंडल के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज करते हुए कार्रवाई का सुझाव दिया. जो अमल में नहीं लाया गया अन्यथा इस घटना की नौबत ही नहीं आती.
इस घटना से आहत आदिवासी अपने साथ हुए छल के खिलाफ उठ खड़े हुए. और जब 24 मई को जैना अपने गुर्गों के साथ उस पाँच एकड़ जमीन जो बिहार सरकार की है तथा उस पर वर्षों से आदिवासियों का कब्जा है; पर पूरी तैयारी के साथ मिट्टी खोदने आया तो आदिवासियों ने उसका डटकर मुक़ाबला किया. जिसके फलस्वरूप यह घटना घटी.
सामंती उत्पीड़न के लिहाज से पूरे बिहार में सबसे कुख्यात माने जाने वाले इसी क्षेत्र में आज से लगभग चार दशक पूर्व इस गाँव से मात्र दस किलोमीटर दूरी पर स्थित आदिवासी गाँव रूपसपुर चँदवा में भूस्वामियों ने एक दर्जन से ज्यादा आदिवासियों की हत्या कर दी थी. आजादी के बाद इसे बिहार का पहला नरसंहार बताया जाता है. हिन्दी के चर्चित उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु ने भी इस घटना का उल्लेख किया था. कुकरन के आदिवासियों ने रूपसपुर चँदवा के आदिवासियों की भांति उत्पीड़कों के हाथों मरने के बजाय उसे ही मार डालना तय किया.
आदिवासी महिलाओं ने पुलिस के समक्ष स्पष्ट तौर पर इस घटना की जिम्मेवारी ली है. फिलहाल पुलिस द्वारा 89 लोगों को नामजद अभियुक्त बनाया गया है. अब तक 40 आदिवासी स्त्री-पुरुषों को गिरफ्तार कर पुलिस द्वारा पहले तो उन्हें प्रताड़ित किया गया और उसके बाद जेल भेजा जा चुका है.
गिरफ्तार 16 महिलाओं को इतनी यातना दी गई कि उसमें दो गर्भवती महिलाओं के गर्भपात तक हो गया. पुलिस द्वारा भाकपा-माले के पूर्णिया जिला सचिव ललन सिंह को मुख्य साजिशकर्त्ता के बतौर नामजद किया गया है. पुलिस द्वारा घटना में इस्तेमाल गैर-लायसेंसी राइफल भी बरामद किया गया है, जबकि जेसीवी का चालक जेसीवी लेकर भागने में सफल रहा. फिलहाल गाँव में पुलिस कैंप कर रही है और गिरफ्तारी व दमन के डर से आदिवासी गाँव छोडकर भाग गए हैं.
वहीं सत्ताधारी दल जद-यू की धमदाहा विधायक लेसी सिंह आदिवासियों द्वारा की गई इस कार्रवाई को निंदनीय और दंडनीय बता रही हैं. भूस्वामी मौलचंद स्टेट के उत्तराधिकारी भाजपा सांसद उदय सिंह ने इस घटना के पीछे भाकपा-माले का हाथ बताया है. भाकपा-माले ने इन आरोपों के खिलाफ 29 मई को पूर्णिया में विरोध-मार्च निकालकर अपना प्रतिवाद दर्ज किया है. जबकि महिला संगठन ‘एपवा’ की ओर से पुलिस द्वारा महिला उत्पीड़न के खिलाफ डीएम के समक्ष प्रदर्शन कर आदिवासियों की रिहाई और दोषी पुलिसकर्मी पर कार्रवाई की मांग की है.
अब थोड़ी पड़ताल इस घटना के पीछे के कुछ जरुरी मुद्दों की. आजादी के तुरंत बाद जमींदारी उन्मूलन से संबंधित कानून बनाने वाला पहला राज्य बिहार ही था. किन्तु यहाँ की आती-जाती सरकारों पर सामंती वर्चस्व के चलते इसे कभी सख्ती से लागू न किया जा सका. दलित-पिछड़े उभार की कोख से निकली सरकारें भी इसे लागू करने में नाकाम ही रही. ये सामाजिक-न्याय की बात तो करते रहे लेकिन सामाजिक-न्याय को सरजमीन पर उतारने के लिए सबसे जरुरी कदम- सामंती वर्चस्व को तोड़ने के कारगर उपाय- भूमि संबंध को बदलने से, निहित स्वार्थों के कारण हमेशा कतराते-भागते ही नजर आए.
यही हाल वर्ष 2005 में बिहार के बदलाव-विकास की बात करते हुए सत्ता में आई नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी सरकार का भी रहा. हालांकि सत्ता में आते ही उन्होंने वर्ष 2007 में भूमि सुधार के लिए पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार से सम्बद्ध रहे डी. बंद्दोपाध्याय की अध्यक्षता में ‘भूमि सुधार आयोग’ का गठन जरुर किया. लेकिन अंततः इसका भी वही हश्र हुआ, अंततः सरकार उसकी सिफ़ारिशों को लागू करने से पीछे हट गई.
माना जाता है कि भाजपा और संघ के गठबंधनों से बनी हुई सरकार को इस कानून को लागू करने में गठबंधन के दरकने का भय सता रहा था. इसलिये सरकार धरातल पर इस कानून को अमल में लाने से पीछे हट गई.
बिहार में भूमि सुधार को रोकने में जनसंघ ने पूर्व में ऐतिहासिक भूमिका अदा की थी, जिसे भूला नहीं जा सकता. वैसे भी वर्तमान जदयू-भाजपा गठबंधन अपने मूल चरित्र में उसी पुराने सामंती लबादे से ही लिपटा हुआ मालूम पड़ता है. इसलिए इनके बूते इस जनपक्षधर बदलाव-विकास के एजेंडे को लागू करना मुमकिन भी नहीं था. भले ही यह सरकार ऊपरी तौर पर आम जनता को गुमराह कर वोट हासिल करने के लिए ‘न्याय के साथ विकास’, ‘सुशासन’ और ‘कानून के राज’ की बात करती रहती है. लेकिन बिहारी समाज में न्यायपूर्ण समाज बनाने की सबसे जरुरी शर्त- भूमि सुधार को लागू करने से मुंह चुराती है.
बिहार में भूमि सुधार के सवाल को सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े बुद्धिजीवियों, सवर्ण-सामंती व नव-सामंती ताकतों के पक्षधर बुद्धिजीवियों तथा सामंती ताकतों से वैधता प्राप्त करने के लिए लार टपकाने वाली राजनीतिक पार्टियों के द्वारा खारीज करने की अक्सर कोशिश की जाती रही है. अपने इस प्रयास के द्वारा वे बिहारी समाज के उस मध्यवर्ग को भी अपनी ओर करने की कोशिश करते हैं, जो गरीबों-दलितों की बढ़ती दावेदारी और तरक्की से भीतर ही भीतर आशंकित-आतंकित रहते हैं. क्योंकि ये शक्तियां अपने दबदबे को खोना नहीं चाहती.
गरीबों-दलितों की दावेदारी के बढ़ जाने में इन्हें अपनी आर्थिक-सामाजिक व राजनीतिक अहमियत खोने का खतरा नजर आता है. वस्तुतः सामंती व्यवस्था से संचालित और अनुकूलित समाज में दलित-पिछड़े तबके के भी बीच से जो नवकुलक-नवधनाढ्य पैदा हो रहे हैं, वे भी अपने चाल-चलन में सामंती ही हैं. नहीं तो कम से कम उनके जैसा होने की कोशिश जरुर कर रहे हैं. इन तबकों के पूंजीवानों-नेताओं-ठेकेदारों के घरों में शादी-विवाह अथवा अन्य आयोजनों के ताम-झाम से इसे भली-भांति समझा जा सकता है.
कृषि-प्रधान और आधी से अधिक गरीब-भूमिहीन आबादी वाले राज्य बिहार के लिए भूमि सुधार का प्रश्न यहाँ की बहुसंख्यक आबादी के लिए जीवन-मरण और इज्जत की गारंटी से संबंधित प्रश्न है. जो लोग बिहारी समाज में सामंतवाद की उपस्थिति तक से इंकार करते हैं, वे शायद यहाँ रोज-ब-रोज होने वाले सामंती उत्पीड़न की घटनाओं से अपनी आँख पर पर्दा डाले रहते हैं और उसे देखना नहीं चाहते. काम करने से इंकार करने पर गरीब-मजदूर की खुले आम पिटाई, गरीब-दलित महिला से बलात्कार, छोटी-मोटी बात पर गरीबों या फिर उनके बाल बच्चों को बेरहमी से पीट देना तो यहाँ आम बात है.
दरअसल सामंती अनुकूलन के चलते वे इन घटनाओं और इसके सामंती उत्स को देख ही नहीं पाते अथवा अपने वर्गीय हित में इसे देख कर अनदेखा कर जाते हैं. लेकिन इससे समस्या तो जस की तस ही बनी रहती है. यही कारण है कि उत्पीड़ित तबके का भिन्न-भिन्न रूप में प्रतिरोध सामने आता रहता है. कभी दलितों-मुसहरों की ओर से, तो कभी आदिवासियों की ओर से इन सवालों पर प्रतिरोध का बिहार में दीर्घकालिक इतिहास रहा है.
इसलिए तो भूमि समस्या के निराकरण में सत्ता के ‘इग्नोरेंस’ के खिलाफ जब पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से आंदोलन शुरू हुआ तो बिहार के गरीबों ने सबसे आगे बढ़कर उसे गले लगाया. क्योंकि यह उन्हें अपनी मुक्ति से जुड़ा हुआ आंदोलन लगा. वास्तव में इस आंदोलन ने समतामूलक समाज निर्माण के लक्ष्य को सामने रखने की कोशिश की थी. इसके अलावा 1974 के आंदोलन से निकले हुए लोगों ने बोधगया में मठ के कब्जे में पड़ी हजारों एकड़ जमीन को भूमिहीनों-गरीबों में बांटने के लिए भी आंदोलन चलाया.
कुछ लोग इन आंदोलनों का मूल्यांकन सांख्यिकी के आंकड़ों के जरिये करते हुए आंदोलन के प्रभाव से वितरित भूमि की मात्रा को ही सफलता का पैमाना बता कर भ्रामक निष्कर्ष निकालते हैं. इस गणना में प्रतिरोध की प्रक्रिया में शामिल गरीबों-मजदूरों व सीमांत किसानों की चेतना के विकास, उनकी बढ़ती दावेदारी से इंकार करने तथा उसे पीछे धकेलने की ही कोशिश की जाती है.
विनोबा भावे ने बिहार में भूदान आंदोलन में पूरे देश में सबसे ज्यादा जमीन जरुर पाई थी. लेकिन वह सामंतों की दया-कृपा पर आधारित और अंततः सख्ती पूर्वक भूमि सुधार को लागू करने की कानूनी प्रक्रिया में जाने-अनजाने बाधक ही बन बैठा. सामंतों-जमींदारों ने भी विनोबा को इसलिए गले लगाया क्योंकि इससे दाता के तौर पर उनके अहम की ही तुष्टि हो रही थी. और फिर भूदान में किस प्रकार बंजर ज़मीनें फर्जीवाड़े ढंग से जमींदारों ने दान की तथा दान की हुई जमीन पर कैसे कब्जा बरकरार रखा, राज्य में प्रत्येक जिले के हजारों भूदान पर्चाधारी गरीब इसकी गवाही देते हैं, जिन्हें जमीन का पर्चा तो तीन-चार दशक पहले मिला किन्तु जमीन पर आज तक सरकार का पूरा तंत्र उन्हें दखल नहीं दिला पाया है.
यहाँ एक बात का उल्लेख कर देना जरुरी है कि इन सवालों पर हो रहे जनता के प्रतिरोध को दबाने के लिए कथित ऊंची जाति के सामंतों-जमींदारों ने जब निजी सेना बनाई तो मझोली जातियों के भूस्वामियों ने भी उसे अपना समर्थन ही दिया, जिससे उनकी वर्गीय एकता की ही पुष्टि होती है.
राज्य की आती-जाती सरकारों ने भी उन्हीं के एजेंडे पर काम किया और जन-प्रतिरोध को कुचलने हेतु कई-कई बार निजी सेना और पुलिस का साझा अभियान चलाया गया. यह सत्ता की स्वीकृति के बगैर संभव नहीं था. इसकी पुष्टि तो तब और खुलकर हुई जब भूस्वामियों की कुख्यात सेना-रणवीर सेना, जिस पर दो दर्जन से अधिक नरसंहार में लगभग 300 दलित-पिछड़ी जाति व अल्पसंख्यक समुदाय के गरीबों, जिनमें स्त्री और बच्चों को भी शिकार बनाया गया था; के संस्थापक बरहमेश्वर मुखिया की हत्या हुई.
मुखिया की मौत से मर्माहत लोगों में दलितों के मसीहा कहलाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, कभी बिहार की सत्ता की चाभी लेकर घूमने वाले दलित नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान सहित अन्य ने भाजपा-जदयू और कांग्रेस के साथ खड़े होकर आँसू बहाये. मामले की सीबीआई जांच की मांग हुई और सुशासन बाबू ने फौरन इसकी अनुशंसा करते हुए सामंती प्रतिबद्धता का सबूत पेश किया. सबके सब बेनकाब हो गए. सिवाय भाकपा- माले के, कोई तटस्थ तक न रह पाया. इससे बिहार में भूमि सुधार के मार्ग की गंभीरता और राजनीतिक जटिलता का साफ पता चलता है.
यही कारण है कि आज इनके एजेंडे से भूमि सुधार का मुद्दा सिरे से गायब हो गया है, अगर है भी तो महज खानापूर्ति. इस मामले में भी भाकपा-माले ही अपनी सामर्थ्य भर इस सवाल पर जन-प्रतिरोध संगठित करती प्रतीत होती है. लेकिन उसे भी इसमें अब तक व्यापक सफलता नहीं मिल पाई है.
बिहार के मौजूदा राजनीतिक हालात के चलते राज्य के ग्रामीण अंचलों में बड़े पैमाने पर भूमि समस्या के कारण कलह हो रहे हैं. न्यायालयों में जितने भी मामले लंबित हैं, उनमें ज़्यादातर भूमि विवाद से ही संबंधित हैं. भूमि सुधार को लेकर अपनाए जा रहे उपेक्षापूर्ण रवैये का आलम यह है कि कार्पोरेटों-पूँजीपतियों को तो सरकार बंदूक की नोक पर किसानों की बहुफ़सली जमीन - भागलपुर, बांका, खगड़िया, मुजफ्फरपुर, अररिया, लखीसराय सहित अन्य जिलों में दे रही है, किन्तु भूमि सुधार आयोग द्वारा राज्य की 21 लाख एकड़ जमीन को गरीबों-भूमिहीनों के बीच बांटने से भाग रही है.
डी. बंदोपाध्याय आयोग के अनुसार राज्य में गैर मजरुआ, शिलिंग से फाजिल, बेनामी, मंदिर-मठों एवं भूदान की 21 लाख एकड़ जमीन है, जिसे आयोग ने भूमिहीन-गरीबों के बीच बांटने की सिफ़ारिश की थी. जिस पूर्णिया जिले में उपरोक्त घटना घटी है, लगभग पाँच लाख एकड़ ऐसी जमीन अकेले इसी जिले में है. आयोग की उन प्रगतिशील सिफ़ारिशों को सरकार ने ठंढे बस्ते में डाल दिया. यदि यह जमीन भूमिहीन गरीब-किसानों को हस्तांतरित कर दिया जाय तो इससे एक तरफ मजदूरों का पलायन तो रुकेगा ही साथ ही साथ कृषि उत्पादन में भी भारी इजाफा हो सकता है. क्योंकि राज्य में ज़्यादातर ज़मीनें उनके पास हैं जो खुद से खेती-बाड़ी नहीं करते और ढेर सारी ज़मीनें परती पड़ी रह जाती है.
लेकिन जब खेत में काम करने वालों को जमीन का स्वामित्व मिल जाएगा तो यह समस्या नहीं रह जाएगी और स्वाभाविक तौर पर इसका साकारात्मक असर कृषि उत्पादन पर पड़ेगा. हाँ, इसके लिए राज्य की निराशापूर्ण स्तर तक उपेक्षित हो चुकी सिंचाई व्यवस्था में भी त्वरित सुधार लाने की जरूरत होगी. केवल कृषि विकास दर के झूठे आंकड़े पेश कर देश-दुनिया में वाहवाही लूटना आसान है किन्तु सरजमीनी स्तर पर उसके लिए कदम उठाना तो हमेशा जोखिम भरा काम होता है. जिसे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के पूंजीपरस्त-कारपोरेटपरस्त एजेंडे के मातहत चलने वाली पिछलग्गू राजनीति कतई लागू नहीं कर सकती है.
*लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में रिसर्च फ़ेलो हैं.
06.06.2013, 14.29 (GMT+05:30) पर प्रकाशित